हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हुज्जतुल.इस्लाम पनाहियान ने ए‘तेकाफ की आध्यात्मिक गहराई और रूहानी सुंदरता पर ज़ोर देते हुए कहा कि इस इबादत के प्रचार-प्रसार की और ज़रूरत है। हालांकि, सच्चाई यह है कि कई केंद्रीय मस्जिदें अपनी सीमित क्षमता के कारण अधिक संख्या में ए‘तेकाफ करने वालों को स्वीकार नहीं कर पातीं।
उन्होंने सुझाव दिया कि जिन लोगों ने पिछले वर्षों में ए‘तेकाफ किया है, उन्हें बहुत अधिक भीड़ वाली मस्जिदों में पंजीकरण से बचना चाहिए, ताकि नए लोगों को यह अवसर मिल सके।
हुज्जतुल-इस्लाम पनाहियान ने कहा कि कुछ मस्जिदों में ए‘तेकाफ का पंजीकरण बहुत कम समय में पूरा हो जाता है, जो इस बात का संकेत है कि आम लोगों, विशेषकर युवाओं में इस इबादत के प्रति असाधारण उत्साह पाया जाता है।
उन्होंने इस प्रवृत्ति को सराहनीय बताया।उन्होंने ए‘तेकाफ की वास्तविकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ए‘तेकाफ केवल एक औपचारिक इबादत नहीं है, बल्कि यह एक “वैचारिक इबादत” है, जो इंसान को चिंतन, आत्म-निर्माण और सामूहिक चेतना की ओर ले जाती है। उनके अनुसार, इस स्तर की इबादत हमारी क़ौम की शान के अनुरूप है और इसे एक बड़ी नेमत समझना चाहिए।
हुज्जतुल-इस्लाम पनाहियान ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि ए‘तेकाफ के बाद उसके व्यावहारिक और सामाजिक प्रभाव मज़बूत होने चाहिए। उन्होंने कहा कि ए‘तेकाफ करने वालों को चाहिए कि वे इस दौरान प्राप्त आध्यात्मिक अनुभवों और सीखे गए संस्कारों को मस्जिदी जीवन में स्थानांतरित करें, ताकि मस्जिदों का रूहानी माहौल और अधिक सुदृढ़ हो, युवाओं की भागीदारी बढ़े और मस्जिद मोहल्ले की सामाजिक समस्याओं के समाधान में प्रभावी भूमिका निभा सके।
उन्होंने स्पष्ट किया कि ए‘तेकाफ केवल व्यक्ति और ईश्वर के बीच संबंध को बेहतर बनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य सामूहिक जीवन को भी सशक्त बनाना है। इसी कारण इस्लाम ने इ‘तिकाफ के लिए जामे मस्जिद को प्राथमिकता दी है, ताकि इंसान समाज के भीतर रहते हुए ईश्वर के निकटता प्राप्त करे और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना भी जागृत हो।
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